Ajay mohan semwal , Dehradun अठाली गांव की 18 वर्षीय अनाथ और दिव्यांग अवंतिका शाह अब भी उम्मीद की आस में टिकी है—शायद कोई हाथ उसके जीवन का सहारा बन जाए। कभी जीवन के सपनों को साकार करने के लिए संघर्ष करती यह बेटी अब अपने पैरों से चल नहीं सकती, बैठ नहीं सकती, और शौचालय जाने तक के लिए किसी की मदद की जरूरत पड़ती है।03 वर्ष पहले तक अवंतिका अपने पैरों पर खड़ी होकर भविष्य की नई राहें खोज रही थी। पर एक गंभीर बीमारी ने उसका संसार ही छीन लिया। वही बीमारी जिसने उसके पिता गोपाल शाह को भी जीवन से दूर कर दिया। माँ अनीता देवी पहले ही इस दुनिया से चली गई थीं। आज अवंतिका पूरी तरह अकेली है—बिना माता-पिता, बिना सहारा, पर उम्मीद से भरी हुई। बेहतर जीवन की उम्मीद लेकर अवंतिका किसी तरह गाड़ी से उतरकर परमार्थ दृष्टि दिव्यांग पब्लिक स्कूल की संचालिका विजया जोशी के पास पहुंची। उसने सोचा, शायद यहां उसे एक ठिकाना मिल जाए—एक ऐसा स्थान जहां वह फिर से अपने जीवन की किरण देख सके। लेकिन स्कूल की सीमित सुविधाओं ने उसकी यह उम्मीद भी अधूरी छोड़ दी। विजया जोशी कहती हैं “दिल चाहता है कि अवंतिका को आश्रय दूं, पर हमारे पास न तो दिव्यांगों के लिए विशेष शौचालय हैं, न सहायक स्टाफ। न जाने कितनी अवंतिकाएं पहाड़ के कोनों में पड़ी होंगी… जिन्हें न सरकार याद करती है, न समाज।” विजया जोशी का कहना है कि डुंडा में सरकार का वृद्ध आश्रम बना है, जो पूरी तरह खाली पड़ा है। उसमें बिस्तर, कुर्सियां और कर्मचारी हैं, मगर कोई वृद्ध नहीं है।“अगर सरकार चाहे तो उसी जगह को दिव्यांगों के लिए हॉस्टल के रूप में उपयोग किया जा सकता है। यह अवंतिका जैसी बेटियों के लिए जीवनदान साबित होगा”।वरिष्ठ पत्रकार प्रेम पंचोली भी कहते हैं, “यह केवल सरकार का नहीं, पूरे समाज का दायित्व है कि ऐसे बच्चों के लिए जिले में एक छात्रावास बने, जहां अनाथ और दिव्यांग बच्चों को आश्रय और आत्मसम्मान के साथ जीवन मिले।” आज अवंतिका अपने गांव में बिस्तर पर पड़ी है—पर उसकी आंखों में उम्मीद अब भी बाकी है। वह चाहती है कि कोई आगे बढ़कर उसके जीवन में फिर से रोशनी लौटा दे। संवेदना की पुकार, कौन सुनेगा फरियाद? अवंतिका जैसी बेटियाँ हमारी संवेदनाओं की कसौटी हैं। अगर समाज जागे, प्रशासन आगे बढ़े और लोग हाथ बढ़ाएं—तो शायद ये बेटियां फिर से मुस्कुराना सीख जाएं।

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